> मटेरियल केंद्र > दोक्दो, कोरियन प्रायद्वीप में जापानी अधिक्रमण का पहला शिकार > जापानी आक्रमण के बारे में कोरियाई जनता की जागरूकता
सिनहान मिन्बो
संपादकीय लेख
आएमाक अईओ मांगगुकमिन
एक देश निकाले व्यक्ति से अधिक दुखी कोई नहीं हो सकता
अगस्त 29, 1910 हमारे लिए एक अत्यंत दुखद दिन था, इस दिन हमारी मातृभूमि ने इस दुनिया से अंतिम विदाई ली । अब हम ऐसे लोग थे जिनका अपना कोई राष्ट्र न था, इतिहास न था, आजादी व प्रभुता न थी । क्या ये हमारे उन महान पापों की सज़ा थी जो हमने पिछले जन्मों में किये थे ? ईश्वर ने ये जानते हुए कि हमें दुख के इन कठिन क्षणों से गुजरना होगा, हमारी रचना ही क्यों की ? क्यों हमारी माताओं ने हमें जन्म दिया ? हमारी स्थिति तो ये थी कि अगर हम दक्षिण दिशा की ओर जाते तो वहा के निवासी हमें निराश्रय कह हमारा अपमान करते और यदि इस अपमान से बचने हम उत्तर दिशा की ओर बढ़ते तो वहाँ के निवासी भी हमे अपमान की दृष्टि से देखते । हमारे पास इस अपमान की घुट को पीने के अलावा कोई रास्ता न था ।
ऐसे कठिन समय में भी हम अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये दुष्ट जापान से जरूर युद्ध करते भले ही उनकी तलवार हमारी गर्दनों पर और उनकी बंदुके हमारी छातियों पर होती, भले ही हम अपने घरों को वापस न लौटते व अपने माता-पिता व भाई-बहनों से न मिल पाते, क्योंकि जिंदा घर वापस जाने का तो ये अर्थ होता कि हमने दुशमन की क्रूरता के सामने घुटने टेक दिये हैं । यकीनन हम अपने परम शत्रु जापान से युद्ध करते भले ही हम उनकी तलवारों और बंदूको के साये में होते । परन्तु अब तो हमारे परम पूजनीय सम्राट भी जापानी साम्राज्य के गुलाम बन गये हैं और हमारे साथ उनका व्यवहार एक सौतेले पिता के जैसा हो चुका है । ऐसा होने के बावजूद हम ये शपथ लेते है कि अपने सम्राट व साम्राज्य को जापानियों के चुंगल से छुड़ाने का पूरा प्रयत्न करेंगे । आज हमारे ऊपर जापानियों की तलवारों व बंदूकों का खतरा है परन्तु हम उनसे मुकाबला करेंगे । यहाँ तक की अबवील पक्षियों को भी अखरोट के पेड़ों पर ठिकाना मिल गया है और वहाँ पर उन्होंने अपना घोसला भी बना लिया है, परन्तु हमारे जैसे अभागे लोगों के लिए इस विशाल पृथ्वी पर शायद कोई स्थान नहीं ।
हमारी गर्दनों पर तलवारे और छाती पर बन्दुक है परन्तु हम अपने साम्राज्य को लूटने वालो से जरूर लड़ेंगे । ये अत्यंत ही अपमान की बात है कि सैकड़ो, हजारो लोगों को कुछ थोड़े से लोगों द्वारा गुलाम बना लिया जाता है, परन्तु हमें तो एक पुरे साम्राज्य का गुलाम बनके पड़ेगा और अत्यंत क्रूर लोगों को हमारा आका बना दिया जाएगा । हम जरूर लड़ेंगे ऐसे साम्राज्य से जिन्होंने हमसे हमारा मानवीय अधिकार छीन लिया है, भले ही हमारे गर्दन पर तलवार व छाती पर बन्दूके रखी हो ।
हे हमारे राष्ट्रीय ध्वज(तायग्योक्गी) ! तुम हमें छोड़ के कहाँ चले गये ? यूंही (1910) के चौथे वर्ष ! तुमने हमारा परित्याग क्यों किया? हमारे सुन्दर देश कोरिया क्या हम कभी तुम्हे दुबारा देख पायेंगे ? हम अपने दुशमन से अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने जरूर लड़ेंगे भले ही हमारी गर्दनों पर तलवार और छाती पर बन्दुक हो ।
हम पत्थरों व पेड़ों की तरह चेतनाहीन व विवेकहीन तो नहीं, तो हम कब तक ऐसे अपमान का घूंट पीते हुए जिंदा रहे ? यकीनन हमे अपने प्राणों की रक्षा करते हुए धैर्यपूर्वक रहना चाहिए परन्तु ये समय धैर्य का नहीं, अगर हम सामूहिकता से प्रयास करे अपने प्राणों की चिंता किये बगैर तो लूशुनको(योसुनगु) और शुशीमा(दाईमादो) की आत्माएँ भी हमारी सहायता करेगी । यदि अपने इस प्रयास में हमारी जानें भी चली जाये तो दुख नहीं क्योंकि ऐसी स्थिति में हमें जापानियों का गुलाम नहीं बनना पड़ेगा । मेरे देशवासीयो ! संघर्ष के लिये आगे बढ़ो ।