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दोक्दो, कोरियन प्रायद्वीप में जापानी अधिक्रमण का पहला शिकार

03. सीइलयाबांगसोंगदाईगोक, 『ह्वांगसोंग शिनमुन(समाचारपत्र)』 (नवम्बर 20, 1905)

  • 황성신문

ह्वांगसोंग शिनमुन(समाचारपत्र)

सीइलयाबांगसोंगदाईगोक, 『ह्वांगसोंग शिनमुन(समाचारपत्र)』 (नवम्बर 20, 1905)

[अनूदित लेख]

संपादकीय लेख
सीइलयाबांगसोंगदाईगोक
जब पहले मार्क्विस इतोकोरिया के दौरे पर आए, कोरियाई जनता ने सामूहिक स्वर में कहा कि उसने पूर्व के तीन राष्ट्रों (कोरिया, चीन और जापान) को सह-अस्तित्व और शांति के साथ व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी ली और भरोसा दिलाया कि इससे कोरिया की स्वतंत्रता को मजबूती मिलेगी ।बंदरगाह से राजधानी तक कोरियाई उच्च और निम्न वर्गीय जनता और पदाधिकारियों ने उसका हार्दिक अभिनन्दन किया ।लेकिन इस दुनिया की बातों का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है ।
किसी व्यक्ति की सीमा से परे, उल्सानिषेध संधि के पाँच शर्तें कहाँ से आई थीं? ये शर्तें न केवल कोरिया के लिए बाधक थी बल्कि पूर्व के तीनों राष्ट्रों के बीच फूट डाल सकती थी । शुरुआत में मार्क्विस इतो* के क्या इरादे थे ? इस सबके के बावजूद, जैसे कि हमारे सम्राट के इरादे दिव्य थे और उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया, मार्क्विस इतोइस बात को समझ गए होंगे कि आपसी समझौता नहीं किया जा सकता है । अफसोस, हमारे सरकार के कुछ मंत्रियों ने, जो सूअरों और कुत्तों से गए गुजरे हैं, लालच और खोखले धमकियों से डरकर अनिश्चित रहे । अंत में, उन्होंने इच्छा से अपने राष्ट्र से गद्दारी कि और उस क्षेत्र को जापान के हवाले कर दिया, जो 4000 वर्षों से कोरिया का था, तथा जिस पर 500 वर्षों से उनके वंशज का अधिकार था, और इस प्रकार दो करोड़ लोगों के आत्मा को गुलाम बना दिया । विदेश मंत्री, पार्कजे-सुनऔर अन्य मंत्रीगण, जो सूवारों और कुत्तों से भी गए गुजरे थे, वे हमारी निंदा के लायक भी नहीं हैं । लेकिन हमरे उप-प्रधानमंत्री का क्या जो मंत्रिमंडल के मुखिया हैं ? क्या जापान के सिर पर दोष मढ़ना और अपने प्रतिष्ठा को बचते हुए, कड़ी विरोध करने के बजाय, विरोध करने का नाटक करना एक महज़ चाल नहीं थी? ना ही तो मैं किम छोंग-उम**की तरह विलाप कर सकता हूँ और ना ही मैं जियोंगदोंग-ज्ञे***की तरह हताश होकर आत्महत्या कर सकता हूँ । मैं दृढ़ता से जीवन के साथ तथा दुनिया से जुड़कर जी रहा हूँ । कैसे मैं अविजित सम्राट का सामना कर सकता हूँ, और कैसे मैं अपने दो करोड़ हमवतन की पीड़ा सह सकता हूँ? अफ़सोस, मेरा हृदय तड़प रहा है ! मैं बहुत पीड़ित हूँ । मेरे दो करोड़ गुलाम देशवासी, क्या हमें जीना चाहिए या मर जाना चाहिए ? क्या दानगुनऔर गिजाके समय से चली आ रही राष्ट्र की भावना अचानक रातोंरात दम तोड़ देंगी ? यह बहुत पीड़ादायक और दुःखदायक भी है। मेरे देशवासी, मेरे हमवतन!

[मूल लेख]

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